अनिश्चिताओं से घिरे अर्थहीन दौर से जब
थका,
रुका, और देखता रहा वो नीला आसमान ,
मन ने भी बेफ़िक्र हो जब भरी उड़ान,
तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ||
संशयों ने सोच को यू जकड़ा रहा दसकों
तक,
पर चट्टानों से टकराती लहरों की सुन
शोर,
ज़ंजीरों को तोड़ बढ़ चला बंधनों को
छोड़
तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ||
पलों में जब बिखर गये सालों के संजोए
वो स्वप्न
हवा का यह झोंका जैसे बहा ले गया सब
और दर्द सा रह गया बस हृदय में अब,
तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ ||
आज़ जब पड़ा रह उदास सा, सब मिट गया, सब लुट गया|
दिये की लौ से जल उठा तब दिल में इक आग
सा,
खड़ा हुआ और बढ़ चला, था अब नया
रास्ता|
तो फिर लगा यू की शायद ज़िंदा हूँ||
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