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Showing posts from March, 2013

कि शायद ज़िंदा हूँ

   अनिश्चिताओं से घिरे अर्थहीन दौर से जब थका , रुका , और देखता रहा वो नीला आसमान , मन ने भी बेफ़िक्र हो जब भरी उड़ान , तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ || संशयों ने सोच को यू जकड़ा रहा दसकों तक , पर चट्टानों से टकराती लहरों की सुन शोर , ज़ंजीरों को तोड़ बढ़ चला बंधनों को छोड़ तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ || पलों में जब बिखर गये सालों के संजोए वो स्वप्न हवा का यह झोंका जैसे बहा ले गया सब और दर्द सा रह गया बस हृदय में अब , तो फिर लगा यू कि शायद ज़िंदा हूँ || आज़ जब पड़ा रह उदास सा , सब मिट गया , सब लुट गया | दिये की लौ से जल उठा तब दिल में इक आग सा , खड़ा हुआ और बढ़ चला , था अब नया रास्ता | तो फिर लगा यू की शायद ज़िंदा हूँ ||